राजपूतों का उदय ( मध्यकालीन भारत का इतिहास ) | PDF Download |

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9वीं और 10वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में एक नये शासक वर्ग का उदय हुआ, जो राजपूत कहलाये गये । मुख्यतः यह राजपूत राजवंश प्रतिहार साम्राज्य के अवशेषों से उभरे थे। 10वीं से 12वीं शताब्दी तक पश्चिमी,उत्तरी और मध्य भारत के एक बढ़े क्षेत्र पर इनका राजनैतिक वर्चस्व बना रहा ।

राजपूतों का उदय ( origin of rajputs ) :

1. पृष्ठभूमि :

“राजपूत” यह पद ( term ) कब और कैसे पद का प्रायबन गया यह ध्यानदेने की बात है, इसका सटीकता से पता लगाना मुश्किल है | हालांकि यह कहा जा सकता है कि 12वीं शताब्दी तक राजपूत पद एक खास वंश या बहुत सारे वंशो को इंगित करने के लिए, एक सामूहिक पहचान के पद के रूप में चलन में आ गया था | इतिहासकारों ने इस पद के प्रयोग में आने और इसके अर्थ के आधार पर भी राजपूत उत्पत्ति को समझने का प्रयास किया है |

राजपूत पद के अर्थ को लेकर भी इतिहासकार एक मत नहीं है, एक मत के अनुसार यह केवल वैदिक क्षत्रिय और राजपुत्रों के लिए उपयोग होता था | राजपूत को देशी मूल का मानने वाले इतिहासकार जयनारायण असोपा का मानना है कि राजपूत पद कालांतर में वैदिक राजपुत्र,राजन्य या क्षत्रिय वर्ग के लिए ही उपयोग में आने लगा था | उनका मानना है कि राजपुत्र और राजन्य समानार्थक रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं | वह राजपूत को केवल क्षत्रिय के रूप में ही देखते प्रतीत होते हैं |

वही गौरीशंकर प्रसाद ओझा ने विभिन्न स्रोतों में राजपूत पद के प्रयोग का अर्थ निकलते हुए कहा है कि, यह शब्द विभिन्न अर्थों के रूप में प्रयोग हुआ है, कहीं रजा के पुत्रों के लिए तो कहीं सामंतों के पुत्रों के लिए, तो कहीं भू-स्वामियों के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है| कुछ इतिहासकारों ने राजपूतों के कुछ वंशों को ब्राह्मण कुल से उत्पन्न माना है, जैसे परमार वंश को ब्रह्मा-क्षत्रिय माना गया है, उनके अनुसार परमार मूलत: ब्राह्मण थे |

गुप्तोत्तर काल के साथ विभिन्न देशी और विदेशी जनजातियों का भारत में शक्तिशाली राजनीतिक प्रभाव तथा नए राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर हुई | साथ ही इस काल में नई सामाजिक एवं राजनीतिक पहचानो का निर्माण भी हुआ | अनेक स्थानीय राजपूत स्त्रोतों में तथा जनश्रुतियों के माध्यम से राजपूतों के क्षत्रिय धर्म, शक्ति, साहस और बलिदान का महिमामंडन किया गया है, इस बात पर बल दिया गया है कि उन्होंने उस समय के हिंदुस्तान में बढ़ रही इस्लामी शक्तियों (अरब और तुर्क) को कठोर चुनौती दी तथा हिंदू धर्म रक्षक की भूमिका निभाई थी| वस्तुत: हमें राजपूतों के इस गुणगान को उनकी संप्रभुता के निर्माण के प्रयास के रूप में भी देखना चाहिए |

राजपूतों की उत्पत्ति के विषय को लेकर इतिहासकारों के मध्य विवाद है, इसलिए राजपूतों का उदय कैसे हुआ इस पर अनेकों विचार सामने रखे गए है |

इन विचारों को मूलत: निम्न प्रकार की संभावनाओं में प्रकट किया गया है |

  • राजपूती मूल के थे, वह वैदिक आर्य-क्षत्रिय थे राजपूत सूर्य एवं चंद्र वंशी थे | उनकी उत्पत्ति अग्निकुल/अग्निकुंडसे से हुई थी |
  • राजपूत विदेशी थे |
  • राजपूतों के उदय एक सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम है |

2. स्वदेशी उत्पत्ति का मत :

राजपूतों की उत्पत्ति को देशी मूल मानने वाले लोगों के विचार का मुख्य आधार यह है कि, राजपूत अपने समय की सामाजिक व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण के ही थे तथा वह मूल रूप से भारत के ही निवासी थे, वह राजपूतों को प्राचीन आर्यों के की संतान मानते हैं | वहीं कुछ लोग राजपूतों की उत्पत्ति को मिथकीय कथाओं से समझाने का प्रयास करते हैं | उपरोक्त मतवाले सभी लोग राजपूतों को कमोबेश देशी मूल का ही मानते हैं, इसलिए इन के विचारों को हमने देशी उत्पत्ति के मत के अंतर्गत ही समझने का प्रयास किया है |

(a) सूर्य एवं चंद्रवंशी होने का मत :

बहुत सारे इतिहासकारों का मत है कि अपने आपको दिव्य, श्रेष्ठ और कुलीन दर्शाने के लिए राजपूतों ने अपनी प्रभावशाली वंशावली बनवाई तथा अपनी उत्पत्ति के संदर्भ में वह खुद को सूर्य और चंद्र वंशी मानते है | वहीं डॉ ओझा ने ऐतिहासिक स्त्रोतों (अभिलेखों तथा ग्रंथों ) के संदर्भ से राजपूतों को सूर्य और चंद्र वंश का माना है, उदाहरण के लिए एवं राठौड़ राजपूतों को सूर्यवंश से उत्पन्न तो भाटी और चंद्रावती के चौहान राजपूतों को चंद्रवंशी माना है | इन प्रमाणों के आधार पर वह राजपूतों को प्राचीन क्षत्रिय के वंशज ही मानते हैं कुमारपालचरित, वर्ण रत्नाकर और राजतरंगिणी जैसे स्रोतों में राजपूतों की जो सूचियाँ मिली है उनके आधार पर राजपूतों की 36 जातियां थी | इन सूचियों के आधार पर ही कुछ इतिहासकार इन्हें प्राचीन क्षत्रिय और सूर्य एवं चंद्र वंश का मानते हैं, हालांकि इन अलग-अलग स्रोतों में दी गई यह सूचना आपस में पूर्णत: मेल नहीं खाती है |

पंडित गौरीशंकर ओझा का मत है कि राजपूत पारंपरिक क्षत्रियों के वंशज हैं, राजपूत पद असल में संस्कृत शब्द राजपूत्र को का ही अपभ्रंश है । इस शब्द का अर्थ है राजघराने का व्यक्ति, इसलिए राजपूत पुरानी क्षत्रिय वर्ण की जातियों के ही थे वह कर्नल जेम्स टॉड की बातों का खंडन करते हुए कहते हैं कि विदेशी जातियों और राजपूतों की वेशभूषा और रीति-रिवाजों में कोई समानता नहीं थी | राजपूत विदेशियों से इतने भिन्न थे कि उनको विदेशी साबित करना गलत होगा | सी.वी. वैध के अनुसार राजपूत वस्तुतः वैदिक आर्यों के ही वंशज थे, वैदिक आर्यों के अलावा कोई और इतने शौर्य से हिंदू (वैदिक) परंपराओं की रक्षा हेतु नहीं लड़ सकता था, राजपूतों ने अरब और तुर्कों का सामना और विरोध इसलिए ही किया था |

दशरथ शर्मा का मानना है कि राजपूत जातियों ने विदेशी शक्तियों का प्रतिकार करने की प्रक्रिया के दौरान ही समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया, वह महत्व में तभी आए जब उन्होंने विदेशियों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, उनका मत है कि कुछ ब्राह्मण जातियों ने भी निज जन, समाज, संस्कृति और अपनी भूमि की रक्षा के लिए शस्त्र उठा लिए थे तथा क्षत्रिय धर्म का पालन किया | आर.सी. मजुमदार ने भी राजपूतों के संदर्भ में प्राचीन क्षत्रिय के मत को महत्व दिया है |

वहीं इस मत से विभेद रखते हुए कुछ इतिहासकारों का मानना है कि, इस प्रकार के प्राचीन क्षत्रिय वंशों से अपनी वंशावली को जोड़ कर राजपूतों ने खुद को क्षत्रिय साबित किया क्योंकि क्षत्रियों को राज्य करने का अधिकार था, तथा उन्होंने पौराणिक मान्यताओं के आधार पर अपनी शासन करने की राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक वैधता को स्थापित एवं प्रसारित करने का प्रयास किया | उनके लिए यह आवश्यक था क्योंकि संभवतः वह शक्तिशाली राज्यों के निर्माण करने से पहले सामाजिक पहचान के धारक थे | खुद को सूर्य एवं चंद्र वंशीय क्षत्रिय कुल से जोड़कर उन्होंने अपनी राजनीतिक और सामाजिक पहचान बनाई |

बी.डी. चट्टोपाध्या का मानना है कि 36 राजपूत जातियों की जो सूचियां हमें मिलती है, वह सभी स्रोतों में एक समान नहीं है और हम यह मान सकते हैं कि वंशावली और इस प्रकार की सूचियों के निर्माण और संकलन में छेड़छाड़ की गई है उनका मानना है कि अपने गौरवशाली इतिहास की रचना करते हुए यह सामान्य प्रवृत्ति देखी जा सकती है कि राजपूत राज-वंशावलियों के निर्माण के समय बहुत सारे ऐसे शासकों को , जिनकी उत्पत्ति का काल और पीढ़ियों की कोई सूचना भी नहीं है, उन्हें भी उन्होंने ने वंशावलियों ने अपनी वंशावलियों में स्थान दिया है | अर्थात् समय के साथ राजपूत शासकों ने अपने कुल को इन सूचियों से जोड़ लिया, उन्होंने अपनी वंशावलियों का निर्माण कर अपनी उत्पत्ति को प्रमुख वंश से जोड़कर खुद के कुल को विशेष, प्रभावशाली, सिद्ध एवं ऐतिहासिक प्रमाणित करने का प्रयास किया | इसलिए अलग-अलग राजपूत जातियों की सूचियां अलग-अलग स्रोतों में कुछ हेरफेर के साथ वंश-क्रम की सूचना प्रस्तुत करती प्रतीत होती है |

(b) अग्निकुल/अग्नि कुंड से उत्पत्ति का मत :

एक मिथक के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुंड अथवा यज्ञ से हुई जिसे गुरु वशिष्ठ ने अपनी कामधेनु गाय को पुन: प्राप्त करने के लिए किया था, क्योंकि विश्वामित्र ने कामधेनु गाय को हर लिया था अत: गुरु वशिष्ठ ने एक यज्ञ किया जिससे चार प्रमुख राजपूत जातियों ( प्रतिहार, चाहमान और चौलुक्य और परमार ) की उत्पत्ति मानी गई है | धीरे-धीरे यह कथा गौण हो गई लेकिन कुछ बदलाव साथ यह मिथकीय विचार जन् स्थम्र्तियों में जीवंत रहा है | यह सामान्य माना गया है कि अग्नि कुल के राजपूतों का जन्म विशेष प्रयोजन के लिए हुआ है जब ब्राह्मण धर्म खतरे में था और क्षत्रियों का अकाल था तब एक यज्ञ के द्वारा उसकी अग्नि से राजपूतों का जन्म विशेष प्रयोजन के लिए हुआ था | कलयुग में मलेच्छों का नाश करने के लिए इनका जन्म हुआ | चंद्रबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो में इसका वर्णन है पृथ्वीराज रासो को ऐतिहासिक ग्रंथ के रूप में स्वीकार करने वालों मैं बहुत सारे लोग इस मिथक को भी ऐतिहासिक घटना मानते हैं यह माना जाता है कि राजस्थान के आबू पर्वत में हुई यज्ञ से चार प्रमुख राजपूत जातियों की उत्पत्ति हुई क्योंकि इनकी उत्पत्ति अग्निकुंड अर्थात यज्ञ की अग्नि से हुई तभी इनको अग्निकुल का माना जाता है | यह पहले ब्राह्मण थे और बाद में इन्होंने क्षत्रिय धर्म अपना लिया था | इस मत को भी इतिहासकारों ने नकारा है क्योंकि यह मत भी पौराणिक कथाओं पर आधारित है और वास्तविकता में यह संभव प्रतीत नहीं होता है | इससे विपरीत इतिहासकारों का तर्क है कि अग्नि अथवा यज्ञ द्वारा शुद्धि का अनुष्ठान संभव है, क्योंकि बहुत सारी राजपूत जातियां या तो विदेशी मूल की मानी गई है, या वह निम्न सामाजिक पृष्ठभूमि से उभर कर सामने आई है हम जानते हैं कि निम्न वर्ण और विदेशियों को वर्ण व्यवस्था में पवित्र नहीं माना गया है बल्कि उनको मलेच्छ इंगित किया गया है इसलिए यह संभव है कि इस तरह के अग्निकुंड अथवा यज्ञ द्वारा शक्तिशाली लेकिन निम्न सामाजिक दर्जे वालों को अथवा विदेशियों को राजपूत जाति के रूप में पवित्र किया गया हो ।

3. विदेशी मूल :

भारतविद अंग्रेज अधिकारी जेम्स टॉड, विलियम क्रूक और वि.ऐ स्मिथ के अनुसार राजपूत सीथियन, शक, कुषाण और इत्यादि बाहरी जनजातियों की ही वंशज है । इतिहासकार आर.जी. भंडारकर ने भी गुज्जर को विदेशी मूल का माना है और प्रतिहारों को वह गुज्जरों से उत्पन्न मानते हैं | हूणों की तरह गुर्जर भी विदेशी नस्ल के थे वह उत्तर-पश्चिम से भारत आए और धीरे-धीरे भारत के आंतरिक भागों में विस्तार करते रहे जहां सर्दी के अंतराल में उन्होंने हिंदू धर्म और संस्कृति को अपना लिया | सर जेम्स कैम्पबेल ( Sir James Campbell ) की तरह भंडारकर ने भी गुर्जरों का खजर मना है | खजर यूरोप और एशिया के सीमांत क्षेत्रों में रहते थे |

लेकिन इस मत का विरोध करने वाले सी. वी. वैध का मानना है कि गुर्जर आर्य थे और वह भारत के थे | खजर और गुज्जर शब्द की ध्वनि समानता के चलते लोगों ने गलत दिशा में बढ़ता हुए, गुर्जरों को खजरों के रूप में एक ही मानना शुरू कर दिया | खजर मूलतः व्यापार करते थे वही गुजर घुमक्कड़ पशुपालन करने वाले थे | विदेशी उत्पत्ति की विचारधारा को मानने वाले कर्नल जेम्स टॉड का मत था कि राजपूत और इन विदेशी जन-जातियों के रीति-रिवाजों में समानता है वह इस समानता के प्रतिबिंब के आधार पर उनका संबंध राजपूतों से जोड़ते हैं जैसे यह विदेशी भी सूर्य के उपासक थे, उनके अनुसार सती प्रथा, अक्ष्वमेघ यज्ञ , शास्त्रों और घोड़ों की पूजा करने की रीत तथा दोनों की पौराणिक कथाओं में भी समानताएँ है |

स्मिथ का विचार है कि शक,कुषाण गुर्जर व हूण जन जातियों का भारत में धार्मिक परिवर्तन हुआ है इन्होंने भारत में अपने राज्य बना लिए थे आगे चलकर इन्हीं से राजपूतों की उत्पत्ति हुई अपनी राजनीतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का संवर्धन करने के लिए अपनी वंशावलियों को सूर्य एवं चंद्र वंश से जोड़ लिया | विलियम क्रूक की बात से सहमत होकर स्मिथ का भी मानना है कि पृथ्वीराज रासो में जिस अग्नि द्वारा राजपूतों की उत्पत्ति बताई गयी है वह वास्तविकता में इन विदेशी जनजातियों का पवित्रीकरण कर समाज में विलय था |

इन जनजातियों को धीरे-धीरे मुख्यधारा में संकलित कर लिया गया और क्षत्रिय वर्ण का माना गया | इन विदेशी मूल की जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म को अपना लिया, अपनी सामाजिक पहचान को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने वंशावलियों का निर्माण कर खुद को सूर्य और चंद्र वंश से जोड़ लिया | हालांकि विदेशी उत्पत्ति का मत रखने वाले इतिहासकार इस संभावना को निरस्त नहीं कर सकते कि कुछ राजपूत जातियां पूर्णता भारतीय मूल की ही थी |

वही राजपूतों के मिश्रित उत्पत्ति के विचार के अनुरूप यह अवधारणा भी रही है कि राजपूतों की उत्पत्ति दोनों विदेशी एवं देशी मूल के वंशजों से संभव है, विभिन्न विदेशी भारत आए और भारत में उनका सामाजिक-सांस्कृतिक विलय सुगमता से हो गया, साथ ही साथ इस काल में ब्राह्मण धर्म का भी विस्तार हुआ और बहुत सारी जनजातियों को मुख्यधारा में शामिल किया गया था, कई सारी देशी-विदेश शक्तिशाली जनजातियों को राजपूत के रूप में मुख्यधारा के सामाजिक व्यवस्था में क्षत्रिय का स्थान प्राप्त हुआ, हालांकि बहुत सी अन्य जन-जातियों को निम्न वर्ग में ही समाहित किया गया था |

4. राजपूत उत्पत्ति एक सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया :

हाल के समय में राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर नवीन विचार प्रस्तुत किए गए है, इतिहासकारों ने राजपूतों की योद्धा के रूप में सम्मान, उदय और उनकी उपलब्धियों को राजनीतिक प्रक्रिया समझा है | वह राजपूतों की उत्पत्ति को एक लंबी प्रक्रिया के विकास के रूप में समझते हैं, जहां एक से अधिक कारणों के साथ उस समय की व्यवस्थाओं में राजपूत जैसी जातियों का उदय संभव था |

आर.एस.शर्मा के अनुसार राजपूत सामंत थे, जिनका उदय गुप्तोचर काल के बाद और सल्तनत के उदय से पहले सामंतवादी काल में हुआ, जब राज्यों की शक्ति और सत्ता का राजनीतिक विकेंद्रीकरण हो रहा था | इस समय अंतराल में राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज के सामंतीकरण हुआ, सामंतवादी उत्पादन के चलन एवं व्यवस्था का प्रभाव उस समय की सभी व्यवस्थाओं पर भी पड़ा |

इरफान हबीब के अनुसार 7 वीं और 12 वीं सदी का काल गोत्र/बिरादरी आधारित राजतंत्र और आघ-राजपूत राज्य का था | इरफान हबीब इस बात की ओर संकेत करते हैं कि फारसी स्त्रोतों में राजपूत शब्द 16 वीं सदी से ही मिलता है, इससे पहले सल्तनत काल में राजस्थान और उत्तर भारत के बड़े-बड़े भू-स्वामियों के लिए यह शब्द प्रयोग नहीं किया गया है |

नार्मनपि जेग्लेर ( NOrman P Ziegler ) ने राजपूतों के शौर्यवान,विदेशियों का विरोध करने वाली छवि से हटकर उनके संबंधों को समझने का प्रयास किया है , उनके अनुसार राजपूतों के केंद्रीय शक्तियों के साथ जो संबंध थे उन्हें केवल राजनीतिक और सांस्कृतिक टकराव के रूप में नहीं समझा जा सकता है | उनका मानना है कि राजपूत इन “मुस्लिम” शासकों को अपनी ही “जाति” की उप श्रेणी का मानते थे, जो केवल शक्ति और हैसियत में उनसे अलग थे |

एक बार जब तुर्क और मंगोलों की केंद्रीय सत्ता और संप्रभुता का निर्माण हो गया, उसके बाद नए और पहले से ही प्रतिष्ठित राजपूतों ने इनकी अधीनता स्वीकार कर ली | उन्होंने ऐसी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था मैं जहां तुर्क और मुगल संप्रभुता को स्वीकार कर लिया गया था, खुद को रजा का पुत्र माना |

नई नैतिक व्यवस्था मैं अपने स्वामी के प्रति पूर्ण सेवा एवं निष्ठा रखना जिसके बदले उससे भू-क्षेत्र, राज दरबार में स्थान एवं सम्मानित पद मिलता था | सेवा एवं निष्ठा का यह नैतिक मूल्य राजपूत राजनीतिक संस्कृति का प्रमुख मूल्य बन गया | जब कभी यह केंद्रीय राज्य राजपूतों के क्षेत्र को अपने अधिकार में ले आते थे और इनकी वरीयता कम करते थे, तभी इन राजपूतों और मुस्लिम शासकों के बीच टकराव होता था | उनका मानना है कि राजपूतों का तुर्क और मुगलों के साथ टकराव और सहयोग, के व्यवहार को राजपूतों के विश्वास, मिथक और नैतिक मूल्यों द्वारा समझा जा सकता है।

डी.एच.ऐ. कोल्फ (D.H.A. KOLF) के अनुसार मध्यकाल में राजस्थान और उतर भारत के अन्य क्षेत्रों में भी बहुत सारे चरवाहा पृष्ठभूमि वाले घुमक्कड़ समूह जिन्हें सैनिक या लड़ाकों वाले गुण विद्यमान थे, वह समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर पाए। राजपूत पद एक व्यापक नाम के रूप में इस तरह की सैनिक और भू- स्वामी वर्ग के लिए उपयोग होने लगा था।

इनका मानना है कि वस्तुतः राजपूत कोई जाति न होकर किसी प्रकार का सैनिक कार्य करने वालों की पहचान सूचक पद था। जिस प्रकार ‘सिंह' पद का उपयोग हुआ है उसी प्रकार राजपूत पद भी सैनिक, योद्धा या सैन्य कार्य करने वालों के लिए उपयोग में आया, मध्यकाल की भारतीय सेनाओं में आम लोग ही सैनिक के रूप में श्रम देते थे, कोई विशेष सैनिक भर्तियाँया प्रशिक्षण नहीं होता था, किसान भी बेहतर आय और खली समय में अपने स्थान से बहुत दूर-दूर जाकर भी सैनिक की भूमिका निभाते थे।

१६ वीं सदी तक राजस्थान के राजपूत परिवारों ने खुद को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास किया और अपनी वंशावलियों का निर्माण किया उनके बीच महान राजपूत परंपरा का भाव था। इस तरह उन्होंने अपने गौरव, शक्ति और प्रतिष्ठा को पुष्ट किया। लेकिन राजस्थान के बहार, उत्तर भारत में भी इस प्रकार के निम्नसामाजिक हैसियत वाले घुमक्कड लड़ाकू समूह और सैनिक लगातार राजपूत के नाम के खुले सामाजिक वर्ग में आधुनिक समय की शुरुवात तक आते रहे। अर्थात् यह केवल उन लोगों का वर्ग नहीं था, जो क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे, बल्कि यह उन लोगों का भी सामाजिक समूह था जिन्हें लड़ना आता था और जो इस प्रकार की सेवाएं दे रहे थे।

हिन्दुस्तान में सैनिक श्रम की अत्यधिक मांग थी, स्थानीय मुखिया अथवा सरदार लोगों को एकत्रित कर बढ़े - बढ़े राज्यों और मुग़ल साम्राज्य को सैनिक सेवा प्रदान करते थे। इस तरह की सैन्य बाजारों में न तो केवल हिन्दू, न केवल क्षत्रिय ही सैनिक कार्य करने हेतु प्रस्तुत थे, बल्कि विभिन्न सामाजिक और जाति के लोग प्रस्तुत थे, आगे चलकर इन सब लोगों की एक ही सामाजिक और आर्थिक पहचान बनी की वह किस के सेवक हैं।कोल्फ का मानना है कि अपने निम्न सामाजिक पहचान को छिपाने के लिए इन आम लोगों ने खुद को राजपूत कहना शुरू किया क्योंकि वह सैनिक कार्य करते थे। कोल्फ के अनुसार राजपूत और सिपाही के रूप में इन लोगों की पहचान इनकी जाति के परे स्थापित हो गयी । कोल्फ इस तरह मध्यकाल में 'राजपूतीकरण' की प्रक्रिया की ओर इशारा करते हैं।

बी.डी. चट्टोपाध्याय आर. एस. शर्मा की तरह 8वीं से 13वीं सदी के काल को साम्राज्यों या राज्यों के राजनीतिक विकेंद्रीकरण और आर्थिक पतन का काल नहीं माना है। वह इस समय काल को सामंतवादी व्यवस्थाओं का काल नहीं मानते हैं, बल्कि वह इस समय काल को 'पूर्व मध्य काल' की संज्ञादेने के ही पक्षधर हैं। वह हमारा ध्यान इस समय हो रही ऐतिहासिक क्रियाओं पर केंद्रित करना चाहते हैं। कृषि विस्तार, वह इस समय जन- जातीय क्षेत्रों में कृषक बस्तियों का स्थापना और फैलाव की बात करते हैं, जिसके चलते समाज में निरंतर बदलाव हुए, विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच सत्ता और जमीन को लेकर संघर्ष हुआ। आगे चलकर शक्तिशाली सरदारों के अधीन कुछ क्लैन (clan) / बिरादरियां अपने आपको संघटित कर राज्य बनाने में सफल रही, इनमें से बहुत सारे निम्न सामाजिक स्तर से उठ कर यह कर पाए थे। इस समय जन-जातियों चरवाहों का कृषि अर्थव्यवस्था और कृषक समाज में विलय हो गया, नई जातियों का निर्माण हुआ कबीलों का राजतन्त्र के रूप में उद्भव हुआ। इन नए उभरते राज्यों ने क्षत्रिय पहचान पाने के लिए ब्राह्मण विचारधारा के ढांचे में खुद को रख कर शक्ति और सत्ता को अपना अधिकार साबित करने का प्रयास किया। इसी तरह वह इस बात पर बल देते हैं कि, राजपूतों की उत्पत्ति उनके समय काल की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं के प्रभाव के अध्ययन के बिना नहीं समझी जा सकती है। राजपूत पहचान अपनाने वाली अथवा कहलाई जाने वाली जातियां, वह कुल /गोत्र थे जिनका विकास उस समय की कृषि- अर्थव्यवस्था के विस्तार, भूमि वितरण के नए चलन खासकर शासक वर्ग की अपनी बिरादरी के अन्दर ही भूमि वितरण होना, राजनीतिक और वैवाहिक संधियों के द्वारा बिरादरी में अंतर-सहभागिता बनाना और अभूतपूर्व पैमाने पर गढ़ों का निर्माण करने के साथ ढलती या निर्मित होती रही।

राजपूत पहचान एक प्रक्रिया के रूप में उभर के सामने आई जिसे वह 'राजपूतीकरण' के रूप में समझते हैं। वह मानते हैं कि यह प्रक्रिया अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय में होती रही, इस तरह विभिन्न भारतीय राजपूत कई चरणों में राजपुतीकरण की जटिल प्रक्रिया से गुजरते हुए राजपूत कहलाए गए, तथा इनमें बहुत से पहले निम्न सामाजिक स्तर के थे।

उनके मत अनुसार देशी और विदेशी मूल के राजपूत उत्पत्ति के सिद्धांत उस समय काल की जटिल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को विशेष महत्व नहीं देते, जबकि राजपूतों की उत्पत्ति को राजस्थान में और उसके बहार भी एक पूर्ण प्रक्रियाके रूप में ही समझा जा सकता है।


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